गान्धार कला की विशेषताएं

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गान्धार कला की विशेषताएं

गान्धार-शैली की विशेषताऐं -

1 . गान्धार-शैली, शैली की दृष्टि से विदेशी होते हुए भी इसकी आत्मा भारतीय है। इस शैली का प्रमुख लेख्य विषय भगवान् बुद्ध तथा बोधिसत्व हैं।


2. गान्धार-शैली की आत्मा भारतीय होते हुए भी इस पर यूनानी (Hellenistic) प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिए गौतम बुद्ध की अधिकांश मूतियाँ यूनानी देवता अपोलो (Appolo) तथा हरक्यूलिस (Hercules) से साम्य रखती हैं। बुद्ध के वस्त्र, मुख की आकृति ग्रीक या हैलिनिस्टिक हैं। यहाँ तक कि एक मूर्ति में गौतम बुद्ध को प्रसिद्ध यूनानी वृक्ष एकेन्थस की पत्तियों के मध्य सिंहासना- रूढ़ दिखाया है ।

3. गान्धार-शैली में निर्मित मूर्तियाँ भूरे रंग के प्रस्तर से निर्मित हैं। कुछ मूर्तियाँ काले स्लेटी पत्थर की भी हैं।

4. गान्धार-शैली की एक विशेषता यह भी है कि इसमें मानव-शरीर का यथार्थ अंकन है, शरीर की माँस-पेशियों के उतार-चढ़ाव बिल्कुल स्पष्ट हैं शरीर के अंगों का सूक्ष्म अंकन है, जबकि भारतीय-शैली में शारीरिक रेखाओं का गोलाकार अंकन किया जाता है।

5. गान्धार-कला की परिधान-शैली विशिष्ट है, मोटे वस्त्रों पर सलवटों का सूक्ष्म अंकन है, जबकि मथुरा शैली में शरीर का नग्न प्रदर्शन है, शरीर के प्रत्येक उभार को मूर्त्त किया गया है।

6. गान्धार-शैली आभूषणों का प्रचुर प्रयोग करती है। बोधित्सवों की मूतियाँ आभूषणों से इतनी अधिक अलंकृत हैं कि एक बौद्ध भिक्षु की अपेक्षा वे यूनानी राजाओं की मूर्तियाँ बन जाती हैं। अनुपम नक्काशी, प्रचुर अलंकरण और प्रतीकों की भी इस शैली में अधिकता है। गान्धार कला में प्रभामण्डल की रचना की जाती है, परवर्ती भारतीय कला में भी प्रभामण्डल का निर्माण होता रहा है। प्रभामण्डल की रचना भारतीय कला को गान्धार-कला की एक विशिष्ट देन है।

7. मूर्तियों में बना प्रभाचक्र (Halow), साज-सज्जा, अलंकरण से रहित है जबकि मथुरा शैली में इसे अलंकृत किया गया है।

गान्धार-शैली कला की उत्कृष्टता की सूचक है, इसकी शैली एवं सामग्री का समन्वय इसके विकास का कारण है। विदेशी विद्वान् इस शैली को भारत की श्रेष्ठतम शैली मानते हैं किन्तु भारतीय-कला के आलोचक इस मत को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हैं। वे इस शैली को अनुकृति की बिडम्बना मात्र, अथवा एक महान पतनो- न्मुख कला की लचर प्रतिलिपि घोषित करते हुए इसे मौलिकता से रहित, हेय कोटि की कला कहते हैं। डा० नीहार रंजन रे, कुमार स्वामी एवं पर्सी ब्राउन इस शैली में कला एवं सत्य का अभाव प्राप्त करते हैं।

~ 19 Jul, 2024

महाशिलाकंटाक, रथमुसल प्राचीन भारत के अस्त्र


 "रथमुसल" युद्ध हथियार चित्र -1 

 "महाशिलाकंटाक" युद्ध हथियार  चित्र - 2 

लगभग २५०० सालो पहले भारत की धरती पर सम्राट  अजातशत्रु और वज्जि साम्राज्य के बीच गंगा के किनारे मिलने वाले मूल्यवान हीरे ,मोतियो ओर सोने के खनन के लिए भयानक युद्ध हुआ, वज्जि साम्राज्य और.....

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मथुरा कला शैली की विशेषताएं

इस शैली का विकास कुषाण शासक कनिष्क के समय उत्तर भारत में हुआ

मथुरा-कला में बौद्ध धर्म से सम्बन्ध रखने वाली हजारों मूर्तियों का निर्माण हुआ । मथुरा-शैली की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं, जिन्हें संक्षेप में हम इस प्रकार देख सकते हैं-

(1) मथुरा-शैली में लाल पत्थर का प्रयोग किया गया है।.....

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मथुरा  कला शैली की विशेषताएं

नयनार कोन थे?

दक्षिण भारत में शिवपूजा का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। पल्लव काल में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार नयनारों द्वारा किया गया। नयनार सन्तों की संख्या 63 बतायी गयी है जिनमें अप्पार, तिरुज्ञान, सम्बन्दर, सुन्दरमूर्ति, मणिक्कवाचगर आदि के नाम उल्लेखनीय है। इनके भक्तिगीतों को एक साथ देवालय में संकलित किया गया। इनमें.....

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राजा राममोहन राय

• भारत के पुनर्जागरण के प्रणेता और एक अथक समाज सुधारक राजा राम मोहन राय का जन्म 22 मई, 1772 को बंगाल के राधानगर में हुआ था।

• इनकी प्रारंभिक शिक्षा फारसी और अरबी भाषा में पटना में हुई, जहाँ उन्होंने कुरान, सूफी रहस्यवादी कवियों के कार्य तथा प्लेटो और अरस्तू.....

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भारत में प्राचीन मृदभाण्ड परंपराओं का इतिहास

प्राचीन मृदभाण्ड हमारे अतीत की झलकियां हैं। ये मिट्टी के बर्तन न केवल उस समय की संस्कृति और कला को दर्शाते हैं, बल्कि उस युग के लोगों की जीवनशैली और आर्थिक स्तर का भी संकेत देते हैं। भारत में विभिन्न प्रकार की मृदभाण्ड परंपराएं प्रचलित रही हैं, जिनका विकास क्रमिक.....

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