इस शैली का विकास कुषाण शासक कनिष्क के समय उत्तर भारत में हुआ
मथुरा-कला में बौद्ध धर्म से सम्बन्ध रखने वाली हजारों मूर्तियों का निर्माण हुआ । मथुरा-शैली की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं, जिन्हें संक्षेप में हम इस प्रकार देख सकते हैं-
(1) मथुरा-शैली में लाल पत्थर का प्रयोग किया गया है। यह पत्थर सफेद चित्ती वाला रवादार पत्थर है जो कि भरतपुर तथा सीकरी में अधिक होता है ।
(2) गान्धार-शैली में बुद्ध पद्मासन तथा कमलासनासीन हैं किन्तु मथुरा शैली में वे सिंहासनासीन हैं। खड़ी मूर्तियों के पैरों के नीचे सिंह की आकृति बनी रहती है।
(3) मथुरा-शैली में आर्य-प्रतिभा ने मुख-मण्डल पर दैवी भावना, आभा का स्पष्ट प्रदर्शन किया है। शिल्पकार आध्यात्मिक अभिव्यंजना के अंकन में भी सफल हुए हैं।
(4) मूर्ति के शरीर का धड़ भाग नग्न है, दक्षिण कर वस्त्रहीन अभयमुद्रा में है। प्रतिभाओं के वस्त्र सलवटों (Folding) से युक्त हैं।
(5) यह शैली यथार्थ की अपेक्षा आदर्श, प्रतीक तथा भावनावादी है।
(6) मथुरा शैली की कुषाण कालीन बौद्ध मूतियों की घनगात्रता तथा विशालता प्रसिद्ध है।
(7) इस युग की मूर्तियों की बनावट गोल तथा पृष्ठावलम्बन रहित है। इन प्रतिमाओं का मस्तक मण्डित है, गुप्तकाल की भाँति कुंचित केश नहीं हैं। मूछों का अभाव है, मस्तक पर ऊर्णा रहती है।